Monday, February 11, 2013

मुहब्बत का जनाज़ा

कौन कहता है मुहब्बत का जनाज़ा निकला 
बात इतनी सी है, अपना भी पराया निकला 

उम्र-ए-रफ़्ता को भुलाऊँ तो भुलाऊँ कैसे 
बज़्म-ए-तनहाई में हर दम वह ज़माना निकला 

खत लिखे लाख मगर लौट के आए सारे 
जो किसीने न पढा ऐसा रिसाला निकला 

आदमी कौन यहाँ, देव किसे कहते हैं 
जिस को देखा वही पत्थर से तराशा निकला 

चाल हम ऐसी चले, मात हमारी तय थी 
जिस पर हमला किया वह सिर्फ 
प्यादा निकला 

थि खुमारी-ए-मुहब्बत तो लगा दिल गुलशन 
होश आया तो वही बाग ख़राबा निकला 

आज कल लोग, '
सफ़र ', भक्त हुए जाते हैं 
के सर-ए-कू-ए-ख़राबात शिवाला निकला




जनाज़ा मेरा उठ रहा था...

फिर भी तकलीफ थी उनको आने में...

ज़ालिम 
आई  भी तो पुछ रही थी ..

और कितनी देर लगेगी दफनाने में...

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