Sunday, January 27, 2013

अहिंसक है नपुंसक नहीं

अभी शहीदों की आत्माओं की शांति बाकी है,
अभी उजड़े सुहागों की क्रान्ति बाकी है,
अभी दुश्मन के लहू का पान बाकी है,
अभी तेरे नेस्तनाबूत होने की क्रान्ति बाकी है,
अभी लावारिस हुए मासूमों जवाब मांगेंगे,
अभी बूढ़े माँ-बाप खोया प्यार मांगेगे,
बहुत खेला क्रिकेट कहके अमन की आशा है,
अब खेलना है लहू से तेरे और नहीं दिलासा है,
सुन ले बेटा नापाक इसमें शक नहीं है,
अहिंसक तो हैं हम पर नपुंसक नहीं हैं…...!!!!!!

शहीद सैनिक की संवेदना

सीमाओं के प्रहरी गर, सीमाओं पर नहीं होते,
होली ना दीवाली, कोई तीज ना त्यौहार है।
दरवाजे तो क्या है, खिडकी भी खोलने से पहले,
सोचते कि बाहर की हवा की क्या रफ्तार है॥
उनके हौसले का भुगतान क्या करेगा कोई,
उनकी शहादत का कर्ज देश पे उधार है।
आप और हम इसलिये खुशहाल हैंकि,
सीमाओं पे सैनिक शहादत को तैयार है।
देखना मुमकिन भी नहीं, सोचना भी जिनको मुश्किल,
ऐसे हादसों को हमने सीने सेलगाया है।
हाथ को भी हाथ ना दिखाई दे वो अंधियारा,
ऐसे में हाथों ने हथियारों को उठाया है॥
माँ तेरी दुआ के दम से, आंचलकी हवा के दम से,
बर्फीली चट्टानों पे, बारुदको उगाया है।
परिंदा भी जहाँ पर, पर नहीं मार सके,
उस जगह जाके भी तिरंगा फहराया है।
क्या हुआ कुछ पल के लिये, सांसे मेरी रुक गई हैं,
माँ मेरी, मुझको भी इस बात का गुमान है।
जब तक सांसे रहीं, सीना दुश्मन के सम्मुख था,
ऐसे सीने पर मेरी सांसे कुर्बान हैं॥
शव मेरा देखो तो कायर न समझ लेना,
ये तो केवल उन दरिंदों की पहिचान है।
वैसे तो पूरा शरीर घाव से भरा हुआ पर,
पीठ पर मरने के बाद के निशान हैं॥
पीठ के निशान मेरे हौसले कोगाली देंगे,
वरना तो जीवन का उद्दार लेके जाता मैं।
चाहे इस लोक जाता, चाहे उस लोक जाता,
हर एक घाव को खुद्दार लेके जाता मैं॥
कहीं किसी भाव मिल जाती गर चंद सासें,
लहू गिरवी रख उधार लेके जाता मैं।
हौसला था किन्तु मेरी सांसेदगा दे गई थी,
वरना तिरंगा सीमा पार लेके जाता मैं॥
दोबारा जनम लुँगा सीमाओं पेलडने को,
तिरंगे को अपनी जबान देके आया हूँ।
धरती के बिन मांगे, मिट्टी में सितारे टाँगे,
वर्दी की मर्यादा की पहिचानदेके आया हूँ॥
आन बान शान सब लेकर के आया यहाँ,
तीर जैसे बेटे को कमान देकेआया हूँ।
जो भी था हासिल दिया था, डूबे को साहिल दिया था,
कारगिल को दिल दिया था, जान देके आया हूँ॥


                                          - श्री जगदीश सोलंकी

Thursday, January 24, 2013

जिंदगी है बड़ी बेवफा

है सब नसीब की बातें खता किसी की नहीं
ये जिंदगी है बड़ी बेवफा किसी की नहीं।

तमाम जख्म जो अंदर तो चीखते हैं मगर
हमारे जिस्म से बाहर सदा किसी की नहीं।

वो होंठ सी के मेरे पूछती है चुप क्यों हो
किताबे-ज़ुर्म में ऐसी सज़ा किसी की नहीं।

बड़े-बड़े को उड़ा ले गई है तख्त केसाथ
चराग सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं।

'सफ़र सबकी दुआएं मिली बहुत लेकिन
हमारी मां की दुआ-सी दुआ किसी की नहीं।

मौत कितनी हसीं होती है


किसी शायर ने क्या खूब कहा है,

ज़िन्दगी में दो मिनट कोई मेरे पास ना बैठा 
आज सब मेरे पास बैठे जा रहे थे,

कोई तोहफा ना मिला आज तक मुझे 
और आज फुल ही फुल दिए जा रहे थे,

तरस गए हम किसी के एक हाथ के लिए 
और आज कंधे पे कंधे दिए जा रहे थे,

दो कदम साथ ना चलने को तैयार था कोई
और आज काफिला बन साथ चले जा रहे थे,

आज पता चला मुझे की मौत कितनी हसीन  होती है 
कम्बख्त हम तो यूँही जिए जा रहे थे।।

Tuesday, January 22, 2013

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस

है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें सब बह जाया करते हैं।
है समय बड़ा तूफ़ान प्रबल पर्वत झुक जाया करते हैं ।।
अक्सर दुनियाँ के लोग समय में चक्कर खाया करते हैं।
लेकिन कुछ ऐसे होते हैं, इतिहास बनाया करते हैं ।।

यह उसी वीर इतिहास-पुरुष की अनुपम अमर कहानी है।
जो रक्त कणों से लिखी गई,जिसकी जयहिन्द निशानी है।।
प्यारा सुभाष, नेता सुभाष, भारत भू का उजियारा था । 
पैदा होते ही गणिकों ने जिसका भविष्य लिख डाला था।।

यह वीर चक्रवर्ती होगा , या त्यागी होगा सन्यासी।
जिसके गौरव को याद रखेंगे, युग-युग तक भारतवासी।।
सो वही वीर नौकरशाही ने,पकड़ जेल में डाला था ।
पर क्रुद्ध केहरी कभी नहीं फंदे में टिकने वाला था।।

बाँधे जाते इंसान,कभी तूफ़ान न बाँधे जाते हैं।
काया ज़रूर बाँधी जाती,बाँधे न इरादे जाते हैं।।
वह दृढ़-प्रतिज्ञ सेनानी था,जो मौका पाकर निकल गया।
वह पारा था अंग्रेज़ों की मुट्ठी में आकर फिसल गया।।

जिस तरह धूर्त दुर्योधन से,बचकर यदुनन्दन आए थे।
जिस तरह शिवाजी ने मुग़लों के,पहरेदार छकाए थे ।।
बस उसी तरह यह तोड़ पींजरा , तोते-सा बेदाग़ गया।
जनवरी माह सन् इकतालिस,मच गया शोर वह भाग गया।।

वे कहाँ गए, वे कहाँ रहे,ये धूमिल अभी कहानी है।
हमने तो उसकी नयी कथा,आज़ाद फ़ौज से जानी है।।




                                                     - गोपालप्रसाद व्यास 




साया

"आस्मां वाले मेरे सर पे अपना साया रख ,
ज़मीं के सारे खुदाओं से दुश्मनी ले ली......!"

                                             (....अनाम)

Monday, January 21, 2013

कातिल या मसीहा

बनकर मेरा कातिल खुद ही जख्म दिखाने लगे

सितम करके हज़ारों खुद मरहम लगाने लगे 

हर एक आरज़ू पे जब जुल्म हुए दिल पर खामोश 

बारी बारी से गर्दिश-ऐ-दौरान हरदम दिखने लगे 

फर्जों की रवायत पर कुर्बान हुई जिंदगी जब 

नादानी से बुझते दिए की खुद लौ जलाने लगे 

बद्दुआ ना दो उस माझी को साहिल पे पहुंचकर

डूबा के कश्ती मझधार में जो उनको बचाने लगे 

दरखतों की शाखों पर खिले है कितने गुल लेकिन 

मेरे गुलशन में गुंचा-ऐ -दिल खुद मुरझाने लगे 

हजारों किये गुनाह मगर बनते रहे मसीहा सोना

उस पर ये एहसान उनका हमे कसूरवार ठहराने लगे 


कृष्ण तेरी राधा गजब करे


कृष्ण तेरी राधा गजब करे।
तेरे को या अधर नचावत तू मन मौद भरे।
कृष्ण रूप धर राधा आवे इसका भेद कोई नहीं पावे,
तू क्या जाने कृष्ण कन्हैया इससे जगत डरे।
कुंज गली में गली-गली में सबसे कहती हूं हीं भली मैं,
नट खट श्याम बतावें तोकूं समझो हरे हरे।
पाय़ल की झणकार सुणाकर कुछ तूं भी मन माहीं गुणाकर,
य़ा मनमानी करत लाडली ना निचली रहत घरे।
सब अपराध क्षमा कर मेरे शिवदीन कहत है हित में तेरे, 
मान मान मत मान श्याम श्यामा को क्यूं न बरे। 


                                                          रचनाकार: शिवदीन राम जोशी  

Sunday, January 20, 2013

डॉ कुमार विश्वास की कुछ रचनाएँ


"जो लड़-रहे हैं खून-पसीना बहा के रोज़,
उन के लिए ख़ुशी नहीं गम भी मज़े में हैं ,
सब का सुकून-चैन मुबारक हो आज से ,
दुनिया मज़े में हैं तों अब हम भी मज़े में हैं...."



मेरे हुजरे में नहीं और कहीं पर रख दो ,
आस्मां लाये हो ले आओ ज़मीं पर रख दो
अब कहाँ ढूंढने जाओगे हमारे कातिल
आप तो क़त्ल का इल्ज़ाम हमीं पर रख दो 



"हमें इकरार करना चाहिए था 

मुकम्मल प्यार करना चाहिए था 

ये सोचा था कि मर जायेंगे तुम बिन 

जो सोचा था तो मरना चाहिए था....!"



"जो धरती से अम्बर जोड़े ,उसका नाम जवानी है ,

जो शीशे से पत्थर तोड़े , उसका नाम जवानी है , 

कतरा-कतरा सागर तक तो , जाती है हर उम्र मगर,

बहता दरिया वापस मोड़े, उसका नाम जवानी है......!"




"गीता का ज्ञान सुनें ना सुनें, 

इस धरती का यशगान सुनें ,

हम सबद कीर्तन सुन ना सकें, 

भारत मां का गुणगान सुने ,

परवरदिगार मैं तेरे द्वार पर ले पुकार ये कहता हूं ,

चाहे अज़ान ना सुनें कान, 

पर जय जय हिन्दुस्तान सुनें…!



                                       - डॉ कुमार विश्वास 

Friday, January 18, 2013

कबीर के दोहे


कंकड़ पत्थर जोड़ के मस्जिद लियो बनाए।
ता चढ मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदा॥

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । 
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥

बुरा जो देखने मैं चला, बुरा न मिला कोए !
जो मन खोजा आपणा, मुझसे बुरा न कोए!!

धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए,
माली सींचे सौ घडा, रुत आये तो फल होए!

Thursday, January 17, 2013

महाभारत के कुछ सबक

धृतराष्ट्रों को
दुर्योधनों की
वैसी ही जरूरत होती है
जैसी कृष्णों को
अर्जुनों की
सत्ता की प्रतिबद्धता हो या निर्भरता
भीष्मों की भी वैसी ही
दुर्गति होती है
जैसी द्रोणाचार्यों की
अभिमन्यु
घेर कर ही मारे जाते हैं सदा
सदैव छले जाते हैं
कर्ण, एकलव्य और बर्बरीक
सत्ता पौरूष की हो या पूँजी की
कुन्तियाँ, गांधारी, राधाएँ और द्रोपदियाँ
समस्त पत्नियाँ, समस्त प्रेयसियाँ, समस्त स्त्रियाँ
होती हैं अभिशप्त
न्याय और सत्य
सिर्फ़ झंड़े पर लिखे होते हैं
लड़े जाते हैं सभी युद्ध
स्वार्थ और सत्ता के लिए
सभी पक्षों के होते हैं
अलग-अलग न्याय, अलग-अलग सत्य।
                                                              —शिवराम

Wednesday, January 16, 2013

सीता का समर्पण


बलात्कार

यह क्या विडम्बना है


नारी के साथ होती है हिंसा

कानून उसे बलात्कार की संज्ञा देता है


और समाज इज्जत लुटने का सर्वनाम

फिर कतिपय बड़े नाम

बनाते हैं प्रश्न चिन्ह


राम राम,

क्यों लांघी लक्ष्मण रेखा


जब एक नहीं रावण छ: छ: थे

सीते तूने

क्यों नहीं कर दिया समर्पण


और एक  बहुत बड़े सन्त

एक हाथ की

ताली से करते हैं तेरा तर्पण


लेकिन तू तो भुमिजा नहीं

तू अग्निगर्भा थी


तू जानती थी कि

आज इस भारत या इन्डिया में

कृष्ण जिसको कभी तूने बांधी थी राखी


भूल कर वो कर्ज

विस्मृत कर अपना फर्ज

व्यस्त है


हफ्ता वसूलने में

इसीलिये किसी कृष्ण की अपेक्षा के बिना

तू स्वयं लड़ी दुशासन से


मैं

मानता हूं कि

तू नहीं हारी

जंग तो अब भी है  जारी ।


इस चीर हरण से

शरीर मेरा नग्न हुआ है

इज्जत मैने खोई है।


मैं

मैं कौन

और कौन मैं ही तो हूं तेरा अपराधी


मैं धृतराष्ट्र,

क्या आंखों के बिना

नहीं सुन सकता था मैं तेरा अन्तर्नाद...


कवी ने अत्याचार सहनेवाले और दर्शक बने समाज के अंतर मन को दर्शाया है।

सूनो द्रोपदी शस्त्र उठा लो, अब गोविंद ना आयंगे


भारतीय संस्कृति को भुला बैठे समाज में स्त्रियों पर बढ़ते अत्याचारों पर किसी कवी की सोच महाभारत में अपनो से ही दांव पर लग चुकी द्रौपदी को श्रीकृष्ण  के बजाय स्वयं ही रक्षा के लिए तैयार होकर कौरवों से लढ़ ने के लिए कह जाती है।




सूनो द्रोपदी शस्त्र उठा लो, अब गोविंद ना आयंगे

छोडो मेहँदी खडक संभालो

खुद ही अपना चीर बचा लो

द्यूत बिछाये बैठे शकुनि,

मस्तक सब बिक जायेंगे

सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयेंगे |

कब तक आस लगाओगी तुम, बिक़े हुए अखबारों से,

कैसी रक्षा मांग रही हो दुशासन दरबारों से

स्वयं जो लज्जा हीन पड़े हैं

वे क्या लाज बचायेंगे

सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आयेंगे |

कल तक केवल अँधा राजा,अब गूंगा बहरा भी है

होठ सील दिए हैं जनता के, कानों पर पहरा भी है

तुम ही कहो ये अश्रु तुम्हारे,

किसको क्या समझायेंगे?

सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयेंगे |

चिंगारी का खेल बुरा होता है


भारत का मस्तक




एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते

पर स्वतन्त्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा

अगणित बलिदानों से अर्जित यह स्वतंत्रता

सुशोभित शोणित से सींचित यह स्वतंत्रता

त्याग तेज तप बल से रक्षित यह स्वतंत्रता

दुखी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतंत्रता

इसे मिटाने कि साजिश करने वालों से कह दो

चिंगारी का खेल बुरा होता है

औरों के घर आग लगाने का जो सपना

वह अपने हीं घर में सदा खराब होता है

अपने हीं हाथों तुम अपनी कब्र न खोदो

अपने पैरों आप कुल्हारी नहीं चलाओ

ओ नादान पड़ोसी अपनी आँखें खोलो

आजादी अनमोल, न इसका मोल लगाओ

पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है!

तुम्हें मुफ्त में मिली, न कीमत गयी चुकाई

अंग्रेजों के बल पर दो टुकड़े पाए हैं

माँ को खंडित करते तुमको लाज न आयी

अमरीकी शस्त्रों से

अपनी आज़ादी को

दुनिया में कायम रख लोगो यह मत समझो

दस - बीस अरब डॉलर लेकर

आने वाली बर्बादी से

तुम बच लोगे ये मत समझो

धमकी, जेहाद के नारों से, हथियारों से

कश्मीर कभी अपना लोगे यह मत समझो

हमलों से अत्याचारों से संहारों से

भारत का शीश झुका लोगे यह मत समझो

जब तक गंगा की धार, सिंधु में ज्वार

अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष

स्वातंत्र समर की बेदी पर अर्पित होंगे

अगणित जीवन जौवन अशेष

अमरीका क्या संसार भले हीं हो विरुद्ध

काश्मीर पर भारत का ध्वज नहीं झुकेगा

एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते

पर स्वतन्त्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा


- श्री अटलबिहारी वाजपेयी

Tuesday, January 15, 2013

कौरव कौन, कौन पांडव

कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|

दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है|

धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|

हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है|

बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,

कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|  

श्री अटलबिहारी वाजपेयी